अननुभूत काल अब यह तीसरी काव्य-पुस्तक है! एकदम नवीन काल से सम्बंधित! अभी-अभी हो गुज़रे बड़े मानवीय हादसे को रेखांकित करती हुई: कोरोना की महा-आपदा! विश्व-आपदा! जो न कभी हुई थी, और आशा ही कर सकते हैं, न कभी होगी! एकदम नए रूप में दुनिया को सोचने को मज...
अननुभूत काल अब यह तीसरी काव्य-पुस्तक है! एकदम नवीन काल से सम्बंधित! अभी-अभी हो गुज़रे बड़े मानवीय हादसे को रेखांकित करती हुई: कोरोना की महा-आपदा! विश्व-आपदा! जो न कभी हुई थी, और आशा ही कर सकते हैं, न कभी होगी! एकदम नए रूप में दुनिया को सोचने को मजबूर होना पड़ा: ऐसा भी हो सकता है? बेतहाशा भागम-भाग में लगी दुनिया अचानक रुक-सी गयी; नहीं, रुक ही गयी – शब्दशः। वायुयान रुक गये, रेलयान रुक गये, बसें रुक गयीं, सारे वाहन रुक गये। मंदिर, मश्जिद, गुरुद्वारे और चर्च भी बंद हो गये: परमात्मा के घर थे वे! हैं! मक्का, मदीना बंद हो गये। वेटिकन बंद हो गया। वह चिरंतन अटूट आस्था जो रुकने का नाम नहीं लेती थी, और आए दिन छोटी-छोटी बातों पर सिर-फुटव्वल को बेताब रहती थी, अचानक अपने को सकपकाता हुआ पाने लगी। क्या वह बस आस्था ही भर थी, दुनियावी प्राणियों को भरमाने के लिए, उसमें कोई पारमार्थिक सार न था? तार्किक मन यह सोचने को विवश हो गया। इस कोरोना-काल ने बहुत सारे पाखण्ड मण्डन किए हैं!