यह मैंने जो कुछ भी लिखा है वह समाज का आइना है। समाज होता क्या है? चंद लोग, चंद लोगों के बनाए चंद नियम रीति-रिवाज़। इन चंद लोगों की एक टोली होती है जो भाई जैसे, चाचा जैसे, पिता जैसे, माँ जैसे, होने का ढोंग रचाते हैं। इससे ज़्यादा समाज की और क्या व्या...
यह मैंने जो कुछ भी लिखा है वह समाज का आइना है। समाज होता क्या है? चंद लोग, चंद लोगों के बनाए चंद नियम रीति-रिवाज़। इन चंद लोगों की एक टोली होती है जो भाई जैसे, चाचा जैसे, पिता जैसे, माँ जैसे, होने का ढोंग रचाते हैं। इससे ज़्यादा समाज की और क्या व्याख्या हो सकती है। यह चंद लोग ही हमारा उठना बैठना तय करते हैं। हम किस राह पर जाए किस राह से वापिस आए यह सब यही लोग तय करते हैं। यह चंद लोग ही हमें समाज की बनाई दीवारों में छिपाते है या बहिष्कृत कर देते हैं। समाज की एक कथित सीमा होती है। अगर कोई सीमोल्लंघन करने की कोशिश करता है तो न तो समाज उसे बोलने देता है न कुछ करने देता है। फिर भी कुछ होते है जो यह दुस्साहस करते हैं और ऊंचाई के शिखर को छूते हैं। फिर यही समाज अपने लोगों के सामने उनके गुणगान गाता है और अपनी ही वाहवाई करता है।